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Sunday, August 23, 2015

चलन
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ
हवा सा भी मचलता हूँ
सर उठाकर मैं मिलता हूँ
बुरा-अच्छा , खारा-मीठा जैसा भी स्वाद हो
अंजुली में भर जीवन पीता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
ज़िंदगी के दिये कर्मों पर
उम्मीद की राह बनाता हूँ
पर ना दुखी ना सुखी होता हूँ
एक सफर में हूँ - मैं मुसाफ़िर
बस यही सोच चलता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
राह अगर चौड़ी है एक किनारे चलता हूँ
साथ चलने का हौंसला भी देता हूँ
आगे बढ़ जाए कोई अगर
अपनी राह पकड़ मैं चलता हूँ
ना दौड़ता हूँ ना फ़िसलता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
ना छलता हूँ
ना छले जाने का ग़म करता हूँ
ना मिले फूल तो कांटो से दोस्ती करता हूँ
कटता हूँ, छिलता हूँ फिर फूल की ख़्वाहिश करता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....

-नारायण गौतम, 2 मार्च 2015


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