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Tuesday, August 18, 2015


तुमसे क्यों मिलता हूँ ?

इसलिये कि मैं खिलता हूँ

हवा सा मचलता हूँ

थोड़ी देर सांसों की सरगम सुनता हूँ

थोड़ा सिमटता हूँ थोड़ा खुलता हूँ

इसलिये तुमसे मिलता हूँ

 

इसी ख़्याल से यादों की किवाड़ खड़खड़ाता हूँ

शायद अंदर सोया बचपन जाग जाए !!

और थोड़ी सहमी सी आवाज़ में

अधखुली आँखों से,

आने का मक़सद पुछे- कौन चाहिये?

.....जी ...वो।..मेरा।..बचपन......यहीं कहीं छोड़ा था,

ज़िंदगी का भगौड़ा बन कर ......भागता-भागता छोड़ा था I

 

पर -चर्खी (लटाई) उसी के हाथ छोड़ी थी ,

धागा अभी भी बंधा है

सो खींचा चला आया ,

पतंग भी यहीं कहीं

किसी टहनी के कोने में उलझी होगी

फर्र-फर्र करती होगी-उड़ने को फ़िर,

चर्खी तुम्हारे पास है मेरे भाई

और धागा मेरे हाथ I

 

चर्खी ना हो तो ज़िंदगी के धागे को बाँध कर कहाँ रखे?

तुम तो मेरी चर्खी हो,

मैं धागा-तुम चर्खी

तुमसे लिपट सकता हूँ- खुल के बिखर सकता हूँ,

इसलिये ढूंडता आया हूँ-सिरे को पकड़कर

कि चर्खी ना गुम हो जाये कहीं। :):)

 

मेरा पतंग भी यहीं-कहीं है,

उलझे धागों में ढूंडता हूँ उस गाँठ को

जिसने मेरी ज़िंदगी की डोर

तेरी चर्खी के साथ बाँध दी है।...

.....इसलिये तुमसे मिलता हूँ।

-नारायण गौतम

कलकत्ता, 14 सितंबर 2014, सुबह 7 बजे

 

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