dreamer

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Sunday, August 23, 2015

.... बातों से मिलकर बातें!


.... बातों से मिलकर बातें!
इन्ने कहा उन्ने सुना
बातों का बुना इक ताना
सिलसिलों का बना बहाना
बातों से मिलकर बातें-बन जाता है अफ़साना
सांसो के जमावडे में
ज़िंदगी का टिमटिमाना
रुकने की चाह में
सफ़र में बनता है आशियाना
.... बातों से मिलकर बातें-बन जाता है अफ़साना
दर्द ढूंडते है शब्द
शब्द ढूंडते है मतलब
बातों की ठक ठका हट से
रास्ता खोजता रहता हूँ
जैसे एक खोजी हो गया हूँ मैं
ढूंडता ज़िंदगी का ख़ज़ाना
.... बातों से मिलकर बातें-बन जाता है अफ़साना
जो आज है वो कल बन जाता है
जो कल आएगा वो परसो'
बनाता है ऐसे ही
अब्स्ट्रक्ट पेंटिंग कोई picasso की तरह - मेरी ज़िंदगी का
मैं भी घुलता जाता हूँ धीरे-धीरे
जैसे रंग कोई पुराना
.... बातों से मिलकर बातें-बन जाता है अफ़साना


-नारायण गौतम,
5 मार्च,2015 (होली)9.20 a .m, calcutta


चलन
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ
हवा सा भी मचलता हूँ
सर उठाकर मैं मिलता हूँ
बुरा-अच्छा , खारा-मीठा जैसा भी स्वाद हो
अंजुली में भर जीवन पीता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
ज़िंदगी के दिये कर्मों पर
उम्मीद की राह बनाता हूँ
पर ना दुखी ना सुखी होता हूँ
एक सफर में हूँ - मैं मुसाफ़िर
बस यही सोच चलता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
राह अगर चौड़ी है एक किनारे चलता हूँ
साथ चलने का हौंसला भी देता हूँ
आगे बढ़ जाए कोई अगर
अपनी राह पकड़ मैं चलता हूँ
ना दौड़ता हूँ ना फ़िसलता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....
ना छलता हूँ
ना छले जाने का ग़म करता हूँ
ना मिले फूल तो कांटो से दोस्ती करता हूँ
कटता हूँ, छिलता हूँ फिर फूल की ख़्वाहिश करता हूँ
मैं सीधी लकीर पे चलता हूँ....

-नारायण गौतम, 2 मार्च 2015


Tuesday, August 18, 2015


तुमसे क्यों मिलता हूँ ?

इसलिये कि मैं खिलता हूँ

हवा सा मचलता हूँ

थोड़ी देर सांसों की सरगम सुनता हूँ

थोड़ा सिमटता हूँ थोड़ा खुलता हूँ

इसलिये तुमसे मिलता हूँ

 

इसी ख़्याल से यादों की किवाड़ खड़खड़ाता हूँ

शायद अंदर सोया बचपन जाग जाए !!

और थोड़ी सहमी सी आवाज़ में

अधखुली आँखों से,

आने का मक़सद पुछे- कौन चाहिये?

.....जी ...वो।..मेरा।..बचपन......यहीं कहीं छोड़ा था,

ज़िंदगी का भगौड़ा बन कर ......भागता-भागता छोड़ा था I

 

पर -चर्खी (लटाई) उसी के हाथ छोड़ी थी ,

धागा अभी भी बंधा है

सो खींचा चला आया ,

पतंग भी यहीं कहीं

किसी टहनी के कोने में उलझी होगी

फर्र-फर्र करती होगी-उड़ने को फ़िर,

चर्खी तुम्हारे पास है मेरे भाई

और धागा मेरे हाथ I

 

चर्खी ना हो तो ज़िंदगी के धागे को बाँध कर कहाँ रखे?

तुम तो मेरी चर्खी हो,

मैं धागा-तुम चर्खी

तुमसे लिपट सकता हूँ- खुल के बिखर सकता हूँ,

इसलिये ढूंडता आया हूँ-सिरे को पकड़कर

कि चर्खी ना गुम हो जाये कहीं। :):)

 

मेरा पतंग भी यहीं-कहीं है,

उलझे धागों में ढूंडता हूँ उस गाँठ को

जिसने मेरी ज़िंदगी की डोर

तेरी चर्खी के साथ बाँध दी है।...

.....इसलिये तुमसे मिलता हूँ।

-नारायण गौतम

कलकत्ता, 14 सितंबर 2014, सुबह 7 बजे