लकीरें
देखा लकीरें पडने लगी है चेहरे पर
आइने में मुँह को थोडा सा दाहिनी ओर घुमाया
लकीरें फिर भी दिख रही थी
थोडा गालों को फुलाया -लकीरें बरक़रार
कुछ न सूझा - सो लकीर के एक कोने को पकड़कर पीछे बढने लगा
रास्ता जाना पहचाना लग रहा था, पड़ाव भी परिचित से लगे
थोड़ी दूर जाते ही -ज्यादा दूर नहीं बिलकुल क़रीब
देखा जवानी खड़ी है एक पेड़ की छांह में
ऐसा लग रहा था मानो अभी-अभी मुझसे रूठ के हाथ छुड़ाकर गयी है
मेरी हथेली अभी भी भी गर्म थी उसकी पकड़ से
उसकी आगोश की गर्माहट अभी भी सीने में महसूस कर सकता हूँ
मैने पूछा क्या बात थी मुझे छोड़कर इतनी जल्दी जाने की
बोली कुछ नहीं- मैने थोडा और टटोला तो बोली
ज़ल्दी? पूरे बीस साल तड़पती रही
मैं जब तेरे सिरहाने पे थी तो तुम किसी और के सपने में गुम थे
तुम्हें दुनियाँ जीतने की फ़िक्र थी
मुझे तुम्हें पाने की
मैं सिमटकर तुम्हें बाँहों में लेना चाहती
और तुम ख्यालों में किसी और के रहते
तुम तुम न होते और मैं तुम्हें तुम में ढूँढने की नाकामयाब कोशीश करती रही
मैं देखती तुम एक के बाद एक ख्वाब बुन रहे हो
मैं सिर्फ तुम्हारे ख्वाब की कहानी सुनती रही
और मैं आहिस्ता-आहिस्ता बढती आई या तुम मुझसे आगे बढते गए-पता नहीं
तुम्हें पता भी न चला-तुम गुम थे ज़िन्दगी बनाने के ख्वाब में
तुम्हे लगा की तुमने वो पाया जिसकी तुम्हे तलाश थी
मुझे लगा की तुमने खोया जिसकी तुम्हे ज़रुरत थी
और यह लकीरें तुम जो देख रहे हो
वो ज़िन्दगी की सलवटें हैं
जो तुमने
ख्वाब देखते हुए वक़्त की चादर में करवट ले कर मुझसे मुँह फेरा था
मैं खामोश होकर अपना सा मूंह लेकर रह गया
आज ये लकीरें मुझसे कुछ कह गयी !
-नारायण गौतम
कलकत्ता ,१५ अगस्त २०१२
(11 .55 p.m)
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